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Sunday, August 22, 2010

Shri Shri Thakur on Image Worshipping

The following  was posted in a community on Thakurji at Orkut by Rahul-da (unborn soul)

मूर्ति-पूजा


(२७.१०.१९७३)

श्रीश्रीपितृदेव(बड़ डा) बैठे है l



एक व्यक्ति ने आकर कहा - बड़-डा! ठाकुर-बंगला के गेट के बाहर प्रकास-डा(दे) यह कहते फिर रहे है-मूर्ति पूजा मत करो,मूर्ति पूजा नहीं चलेगी l कालीपूजा मत करो,कालीपूजा नहीं चलेगी-इत्यादि l

इस प्रकार अंट-संट यजन करते है l बाहर से आये हुए भाइयो से भी कहते-फिरते है l



श्रीश्रीपितृदेव ने सब कुछ सुनकर प्रकाश-दा को बुलवाया l प्रकाश-दा के निकट आते ही उन्होंने कहा-ऐ! तुम अंट-संट बाते क्यों कहते हो?क्या ठाकुर ने ऐसा कहा है ?



प्रकाश-दा - जी हा! तो मूर्ति-पूजा करता है वह ठाकुर को प्रेम नहीं करता l ठाकुर तो सब कुछ है l ब्रम्हा,विष्णु,महेश्वर सब तो वे ही है l



श्रीश्रीपितृदेव - क्या ठाकुर ने ऐसा कहा है?



-जी, ठाकुर ने कहा है-"सद्गुरु के सरनापन्न होओं,सतनाम मनन करो और सत्संग का आश्रय ग्रहण करो - मैं निश्चय कहता हूँ, तुम्हे और उन्नति के लिए सोचना नहीं परेगा l"



- हा वह तो मैं समझा l किन्तु मूर्ति पूजा नहीं चलेगी, इस तरह की बाते क्या कही कही गयी है?



प्रकाश-दा गले का स्वर उचा कर श्रीश्रीठाकुर की कतिपय वाणियो को visrinkhal रूप से कहते गए l श्रीश्रीपितृदेव यह देखकर धमकी देते हुए बोले- ऐ सुनो, तुम्हारे बोलने से तो काम नहीं होगा?ठाकुर ने कहा,क्या कहा है,क्या किया है, क्या इन सारी बातो की जानकारी तुम्हे है?व्यर्थ में अंट-संट विभार्न्तिकर याजन करने से labh क्या है? (सबको लक्च्या कर इसबार वे बोले) - सरस्वतीपूजा के अवसर पर ठाकुर स्वय अंजलि देते थे l हम लोग अब भी दे रहे है l पहले शिवपूजा भी होती थी l अभी (आश्रम में) शिव का चरणामृत daily दिया जाता है l पण्डाजी दे जाते है l(थोडा रूककर) जो ठाकुर को प्रेम नहीं करता है,क्या वह नरक का कीड़ा होगा? कोई मुहम्मद को प्रेम करता है,कोई काली को, तो कोई येसु को l तो क्या सभी भूल कर रहे है? किसी के इस्त काली है,तो किसी के शिव है और किसी के इस्त कृष्ण l क्या ठाकुर ने यह नहीं कहा है - जो दुसरे के गुरु की निंदा कर अपने इस्त की प्रतिष्ठा करना चाहता है, वह विपत्ति में फस जाता है?



सुनील-दा (करण)-जी! ठाकुर ने तो ऐसा ही कहा है l

देवी-दा(मुखोप्ध्याय) श्रीश्रीपितृदेव के निर्देसानुसार अनुश्रुति(१ खंड) लाये निम्नलिखित वाणी(आदर्श-५१) पाठ कर सुनाने लगे-



"दुसरे के इस्त की निंदा कर

बन गये इस्तनिष्ठ

अपने ही पाव कुल्हाड़ी मारा

समझा नहीं रे पापिस्थ!"



श्रीश्रीपितृदेव ने प्रसन्न हो कहा - हा, बात तो यही है l विश्वास कभी अँधा नहीं होता l अनेको नारायणसिला पूजा कर सिद्ध हुए है l अनेको काली-साधना में सिद्ध हुए है l आगमबगिस ने उनके हाथ से नारायण पायस खाया था l



असली बात यह है की किसी के भी भाव को नस्त नहीं करना चाहिए l मेरी बातो को दुसरे व्यक्ति सुनकर जिससे उद्बुद्ध हो, यह देखना चाहिए l तभी वे ठाकुर को पकड़ते है,ग्रहण करते है l किन्तु किसी देव-देवी या महापुरुस को छोटा बनाकर दुसरे देव-देवी या महापुरुस को बड़ा बनाया नहीं जा सकता है l



इतने बड़े निखिल ब्रम्हांड में कितनी जगहों में कितने रूप में ठाकुर है, यह कौन जनता है l सभी एक ही भाव को लेकर साधना करेंगे, उसका कोई अर्थ नहीं l जिसका जैसा भाव होता है उसके वैसे गुरु होते है l उस भाव से भजना भी करता है l

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